भूपेंद्र पांडेय
पृथ्वी ग्रह:विकास के नाम पर हमने भोगवादी मॉडल को अपनाया है. यह हमारे जीवन तथा पर्यावरण के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहा है। अपने स्वार्थ के लिए मनुष्य प्राकृतिक वातावरण को लगातार नुकसान पहुंचाता जा रहा है। वैज्ञानिकों द्वार बार−बार चेतावनी के बावजूद प्रकृति से अधिकतम पदार्थ प्राप्त कर लेने की इच्छा खत्म नहीं हो रही है। अपने लाभ के लिए विकास के नाम पर कई ऐसे अविष्कार भी कर दिए गये जो जल, जंगल, जमीन में जहर घोल रहे हैं। प्रकृति के उपहारों का ऐसा दुरूपयोग हुआ कि धरती, आकाश, पाताल जहां से मिल सकता था उसे लेने में कोई कसर बाकी न रखी। इस बेहिसाब दोहन का यह नतीजा है कि आज पर्यावरण का संकट पूरी दुनिया पर छा गया है। पर्यावरण संकट के दुष्परिणाम अकाल, बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन जैसी आपदाओं के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं।
पर्यावरण संकट से उत्पन्न प्राकृतिक आपदाओं के कारण होने वाली जन−धन आदि की हानि भी विकास की अंधाधुंध रफ्तार को नहीं रोक पाई है। विकास की कोई सीमा रेखा तय न होने का नतीजा यह है कि आज अधिकांश जल स्त्रोत प्रदूषित होकर समाप्ति की ओर जा रहे हैं। जल संकट साल दर साल गहराता जा रहा है। हरी−भरी जमीन जलविहीन होकर रेगिस्तान में बदलने की स्थिति में है। हवा में बढ़ता जहरीला धुआं बढ़ते−बढ़ते ओजोन परत को भी नुकसान पहुंचाने की स्थिति निर्मित कर चुका है। आज जब बाढ़ आती है। सूखा पड़ता है तो सभी बिलखने लगते हैं, चीख पुकार मच जाती है, सरकार विरोधी नारे लगने लगते हैं, कुछ भगवान को भी कोसने लगते हैं। मगर किसी ने नहीं सोचा की ऐसा होता क्यूं है? हमारी अधिकांश समस्याएं वस्तुपरक भोगवादी दृष्टि से ही पैदा हुई हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के मुताबिक, भारत में लगभग 9.7 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं होता लेकिन यह आंकड़ा महज शहरी आबादी का है। ग्रामीण इलाकों की बात करें तो वहां 70 फीसदी लोग अब भी प्रदूषित पानी पीने को ही मजबूर हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, पीने के पानी की कमी के चलते देश में हर साल लगभग छह लोग पेट और संक्रमण की विभिन्न बीमारियों की चपेट में आकर दम तोड़ देते हैं। गांवों में साफ पानी नहीं मिलता और महानगरों में वितरण की खामियों के चलते रोजाना लाखों गैलन साफ पानी बर्बाद हो जाता है।
कहने को तो भारत नदियों का देश है, लेकिन विडंबना यह है कि 70 प्रतिशत नदियां जानलेवा स्तर तक प्रदूषित हैं। भारत की कई नदियां जैविक लिहाज से मर चुकी हैं। इसका असर पर्यावरण के साथ लोगों पर भी पड़ रहा है। कई नदियों का अस्तित्व बचाना मुश्किल हो रहा है। देशभर में प्रदूषण की चपेट में करीब 150 नदियों में गंगा और यमुना नदी भी शामिल हैं। देश के 27 राज्यों में 150 नदियां ऐसी हैं जो प्रदूषण की चपेट में हैं, इनमें सबसे ज्यादा 28 नदियां महाराष्ट्र राज्य में हैं तो विकास की मिसाल कायम कर रहे गुजरात की 19 नदियों का भी प्रदूषण के कारण हाल बुरा है। राज्यवार प्रदूषित नदियों की बात की जाए तो उत्तर प्रदेश तीसरे पायदान है जहां 12 प्रदूषित नदियां समस्या बनी हुई हैं। इसी प्रकार कर्नाटक में 11 के अलावा मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में 9−9 नदियां ऐसी हैं, जो प्रदूषण की चपेट में हैं। वहीं राजस्थान की पांच और झारखंड, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की भी तीन−तीन नदियां प्रदूषित नदियों की सूची में शामिल हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से गुजरने वाली एक मात्र यमुना नदी का प्रदूषण तो अरसे से सुर्खियों में बना हुआ है।
भारत के वन क्षेत्र पर स्थिति रिपोर्ट 2015 के मुताबिक, जम्मू−कश्मीर, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, तेलंगाना में जंगल तेजी से घटे हैं। पूरे भारत की बात करें तो 19वीं एवं 20वीं शताब्दी में देश में केवल 12 बार सूखा पड़ा, यानी 16 वर्ष में एक बार सूखा पड़ा। लेकिन 1968 के बाद से सूखे की तादाद में वृद्धि आई। जंगलों की अंधाधुंध कटान जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण बताया जा रहा है। मानवीय लालच ने वनों की विनाश लीला का काला अध्याय लिखा है। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2009−2011 में ही भारत में 5339 स्क्वायर किलो मीटर वन क्षेत्र विकास के नाम पर बलि चढ़ गये तथा राष्ट्र को 2000 करोड़ रूपये की आर्थिक हानि हुई। वनों के घटने के कारण हर वर्ष, वर्षा के दिनों में, भूस्खलन, बाढ़ आदि से करोड़ों रूपये का राष्ट्र को नुकसान उठाना पड़ता है। उदाहरण के लिये 16 एवं 17 जून 2013 को उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा ने 5700 यात्रियों व पर्यटकों के जीवन को समाप्त कर दिया तथा बड़ी कठिनाई से सरकारी प्रयासों से 1,17,000 लोगों के जीवन को बचाया जा सका।
धरती का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है जिसके चलते प्रकृति में अनेक नुकसानदेह परिवर्तन हो रहे हैं। कुल मिलाकर देखें तो बढ़ती गर्मी के लिये कहीं न कहीं मानव जाति ही कसूरवार है। विकास की दौड़ में सरपट भागते इंसानों ने कार्बन उत्सर्जन, पेड़ों की कटाई, प्रकृति से खिलवाड़ करते वैश्विक तापमान में जो बढ़ोत्तरी की है उसका ही दुष्परिणाम अब प्रतिवर्ष बढ़ती हुई गर्मी एवं तापमान के रूप में सामने आ रहा है। आंकड़ों के आलोक में बात की जाए तो पिछले वर्षों में हर वर्ष औसतन तापमान में बढ़ोतरी रिकार्ड की जा रही है। गौरतलब है कि पिछली एक शताब्दी के दौरान देश के अन्य 9 सबसे गर्म वर्षों में 2009, 2010, 2003, 2002, 2014, 1998, 2006 और 2007 है। खास बात यह है कि पिछले 15 वर्षों 2000-2015 के दौरान ही रहे। इससे आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रतिवर्ष तापमान बढ़ने की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। पिछले वर्ष जानलेवा गर्मी ने ढाई हजार लोगों को मौत की नींद सुला दिया था।
ऐसे हालात में यह जरूरी हो गया है कि विकास को इस प्रकार सीमित व व्यवस्थित बनाया जाए कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कायम रह सके। विकास की प्रक्रिया को इस प्रकार निर्धारित किया जाए कि उससे प्राकृतिक संसाधनों पर विपरीत प्रभाव न हो। यदि विकास के साथ−साथ पर्यावरण की भी गंभीरता से चिंता की जाए तो बिगड़ती प्राकृतिक स्थिति पर कुछ रोक लगाना संभव है। मत भूलिये की प्राकृतिक संसाधन इंसान की जरूरतों की पूर्ति तो कर सकता है किन्तु उसकी लालच की पूर्ति नहीं कर सकता।